जिस घर में कील लगाते जी दुखता था, उसकी दीवारें कभी भी धसक जाती हैं. आंखों के सामने दरार में गाय-गोरू समा गए. बरसात आए तो जमीन के नीचे पानी गड़गड़ाता है. घर में हम बुड्ढा-बुड्ढी ही हैं. गिरे तो यही छत हमारी कबर (कब्र) बन जाएगी.’ जिन पहाड़ों पर चढ़ते हुए दुख की सांस भी फूल जाए, शांतिदेवी वहां टूटे हुए घर को मुकुट की तरह सजाए हैं. आवाज रुआंसी होते-होते संभलती हुई!
हिमाचल प्रदेश में सिरमौर जिले की चढ़ाई-उतराई के बीच बसा शमाह गांव…शहर की तरफ आते-आते शर्मीले बच्चे की तरह दुबका हुआ, जहां न बाजार-हाट हैं, न सिनेमा-स्पताल. साल 2013 में जब केदारनाथ आपदा पूरे देश को दहला रही थी, इस गांव ने पहली बार कयामत देखी. फटती जमीनें. दरकती दीवारें. कहीं से भी फूट पड़ता पानी.
लंबा समय दूसरे गांव में तिरपाल के नीचे बिताने के बाद लोग वापस लौट आए. साल-दर-साल दरारों को खाई में बदलता देखने के लिए. तब से 4 सौ की आबादी वाला गांव आधे से ज्यादा खाली हो चुका है. जो बाकी हैं, वे मौत से आंख-मिचौली खेलते हुए.
पोंटा साहिब से सड़क के रास्ते निकलें तो तीन घंटे में शमाह पहुंच जाएंगे.
सबसे पास के कस्बे तिलोरधार से लगभग एक किलोमीटर पैदल चलते ही उजड़े हुए इस गांव की झलक दिखने लगेगी. दहलीज पर ही तिमंजिला मकान के ढूहे पड़े हुए. हल्के नीले खंभों वाले घर के निचले हिस्से में पड़ोसी अब मवेशी बांधते हैं, या अनाज सूखता,ज्यादातर कमरों की छत टूटकर फर्श से मिली हुई.!
बारिश के तीन महीने रात-दिन का खौफ कि कभी भी कोई घर, या पूरा का पूरा गांव एकदम से धसक जाएगा.